Shrimad Bhagwat Geeta Saar: श्रीमद्भगवद्गीता सार - Part 19 of 33

 

Krishna with peacock feather teaching Gita to Arjuna on divine chariot at Kurukshetra with sunrise and Sanskrit verses


दैविक व असुरी प्रवृत्तियाँ: आत्मविकास का द्वंद्व (Geeta के संदर्भ में)

"गीता में दैवी और आसुरी प्रवृत्तियाँ: आत्मविकास की असली परीक्षा"
"क्या आपके भीतर देवता और राक्षस दोनों हैं? जानिए गीता के अनुसार दैविक और असुरी प्रवृत्तियाँ क्या हैं और ये आत्मा के विकास में कैसे भूमिका निभाती हैं।"

🔍 भूमिका

प्रत्येक मनुष्य के भीतर दो शक्तियाँ काम करती हैं –
दैविक प्रवृत्तियाँ (Divine tendencies) और असुरी प्रवृत्तियाँ (Demonic tendencies)।
भगवद्गीता का अध्याय 16 इस द्वंद्व को विस्तार से समझाता है –
कि कैसे आत्मविकास इन्हीं दोनों के बीच संघर्ष का परिणाम होता है।

“दैवी संपदा मोक्षाय निबन्धायासुरी मता।”
(गीता 16.5)
अर्थ: दैवी संपदा मोक्ष की ओर ले जाती है और असुरी प्रवृत्तियाँ बंधन की ओर।

🌟 क्या हैं दैविक प्रवृत्तियाँ?

(Geeta Chapter 16, Verse 1–3)

क्रम दैविक गुण (Divine Qualities)
1 अभय (निर्भयता)
2 सत्य भाषण
3 तप, दया और क्षमा
4 आत्म-संयम
5 ज्ञान और विवेक
6 अहिंसा, सरलता

आर्य समाज की पुष्टि:

  • ये सभी गुण सच्चे आर्य के लक्ष्ण हैं

  • “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” – सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाओ – अर्थात इन गुणों से युक्त बनाओ

🔥 क्या हैं असुरी प्रवृत्तियाँ?

(Geeta Chapter 16, Verse 4 & 7–9)

क्रम असुरी गुण (Demonic Qualities)
1 अहंकार और क्रोध
2 लोभ और छल
3 कठोरता और दया का अभाव
4 धर्म और सत्य का तिरस्कार
5 अधर्म को धर्म मानना
6 “ईश्वर नहीं है” – यह मान्यता

“असुर लोग कहते हैं: ‘यह जगत बिना ईश्वर के है, बिना आधार के है।’”
(गीता 16.8)

⚔️ आत्मविकास का द्वंद्व

  • हर मनुष्य का युद्ध महाभारत की तरह है –
    अर्जुन की तरह विवेक, और कौरवों की तरह विकार भीतर मौजूद हैं।

  • गीता कहती है – आत्मा को दैविक गुणों से पोषित करो और
    असुरी प्रवृत्तियों को त्यागो।

कैसे करें यह संघर्ष?

  1. स्वाध्याय: प्रतिदिन आत्मचिंतन

  2. सत्संग: सकारात्मक विचारों और संगति से जुड़ाव

  3. सत्य आचरण: विचार, वाणी और व्यवहार में एकता

  4. कर्म योग: सेवा और समर्पण से भीतर की सफाई

🔬 वैज्ञानिक दृष्टिकोण:

मानव मस्तिष्क में amygdala और prefrontal cortex जैसे हिस्से
असुरी व दैविक प्रवृत्तियों के नियंत्रण से जुड़े हैं –
जहाँ आवेग, क्रोध और भय एक ओर हैं और विवेक, सहानुभूति व संयम दूसरी ओर।

“गीता का ज्ञान केवल आध्यात्म नहीं – यह मानसिक संतुलन और नैतिक स्वास्थ्य का मार्ग है।”

🧘‍♂️ उद्देश्य:

  • दैविक प्रवृत्तियाँ अपनाकर आत्मा की ऊँचाई बढ़ाना

  • असुरी प्रवृत्तियों को जानकर, उनसे स्वयं को मुक्त करना

  • यही है वास्तविक आत्मविकास का द्वंद्व – जो हर दिन हमारे भीतर चलता है

"अपने भीतर की गीता को पढ़ो – दैविक और असुरी प्रवृत्तियों के युद्ध में जीत तुम्हारे आत्मविकास की पहली सीढ़ी है।"
"Read the Geeta within – conquer the battle between divine and demonic tendencies for true self-growth."

❓ FAQs:

Q1: क्या असुरी प्रवृत्तियाँ हमेशा गलत होती हैं?
उत्तर: वे आत्मा को नीचे ले जाती हैं – इसलिए त्याज्य हैं। इनका उद्देश्य पहचानना और सुधारना है।

Q2: क्या आम इंसान दैविक बन सकता है?
उत्तर: हाँ, गीता कहती है – कोई भी व्यक्ति सतत अभ्यास और विवेक से अपने स्वभाव को दैवी बना सकता है।

📚 Disclaimer:

यह लेख विभिन्न स्रोतों व आर्य समाज साहित्य के अध्ययन पर आधारित है। लेखक न तो धार्मिक गुरु है, न गीता काअंतिम ज्ञाता – उद्देश्य केवल जागरूकता और चिंतन को बढ़ावा देना है।

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