ध्यानयोग – ईश्वर में लीन नहीं, आत्मा में स्थिर होना
"ध्यानयोग का आर्य दृष्टिकोण: लीनता नहीं, आत्मा में स्थिरता है असली ध्यान"
"क्या ध्यान का अर्थ है समाधि लगाना या किसी छवि में खो जाना? जानिए गीता के ध्यानयोग को आर्य समाज और तपोभूमि की दृष्टि से – एक वैज्ञानिक और आत्मिक अभ्यास।"
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🔍 भूमिका
आधुनिक दौर में “ध्यान” का मतलब समझ लिया गया है – आँखें बंद करके किसी मूर्ति, मंत्र या कल्पित छवि पर एकाग्र होना।
परंतु गीता, वेद, और आर्य समाज की दृष्टि से ध्यान का वास्तविक स्वरूप इससे कहीं अधिक व्यावहारिक, वैज्ञानिक और आत्मिक है।
“ध्यान वह नहीं जिसमें तुम खो जाओ, ध्यान वह है जिसमें तुम स्वयं को पा सको।”
🧘♂️ गीता में ध्यानयोग क्या कहता है?
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
“युञ्जन्नेवं सदा आत्मानं योगी नियतमानसः।”
(योगी अपने मन को सदा आत्मा में लगाकर ध्यान करता है।)
आर्य समाज की व्याख्या:
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ध्यान का लक्ष्य है आत्मा को जानना, न कि किसी काल्पनिक ईश्वर का अनुभव करना।
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यह स्वयं पर नियंत्रण, इंद्रियों पर संयम, और चेतना की जागृति का अभ्यास है।
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ध्यान आत्मा को ईश्वर के नियमों से जोड़ने का माध्यम है, कोई चमत्कारी क्रिया नहीं।
🧠 ध्यान: भाव नहीं, विवेक का अभ्यास
तपोभूमि की साधना पद्धति के अनुसार:
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ध्यान का अभ्यास भावनात्मक लीनता नहीं, बल्कि चेतन जागरूकता है।
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यह अभ्यास है:
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विचारों की गति को नियंत्रित करने का
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स्वभाव और वृत्तियों को अनुशासित करने का
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मौन में आत्मा से संवाद करने का
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💡 “ध्यान बाहरी शांति नहीं, भीतरी स्पष्टता है।”
🔍 ध्यान और मूर्तियों का संबंध?
गीता में स्पष्ट है:
“नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।”
(योग न तो अति उपवास में है, न अति भोग में – यह संतुलन का मार्ग है।)
आर्य समाज का मत:
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ध्यान में मूर्ति, माला, या चित्र की कोई आवश्यकता नहीं।
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वेदों में ध्यान के लिए साधन है – सत्य विचार, आत्मनिग्रह, और प्राणायाम।
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ईश्वर निराकार है – उसका ध्यान गुणों, नियमों और वैदिक ज्ञान से होता है।
🛤️ ध्यानयोग का व्यवहारिक स्वरूप
आज ध्यान का सही उपयोग कब है?
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जब मन अशांत हो, ध्यान से स्थिरता आती है।
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जब मोह या क्रोध बढ़े, ध्यान से संयम आता है।
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जब आत्मविश्वास डगमगाए, ध्यान आत्मा से जोड़ता है।
आर्य समाज ध्यान की तीन अवस्थाएँ मानता है:
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प्रार्थना – आत्मा को ईश्वर के गुणों से जोड़ना
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स्वाध्याय – आत्ममंथन और वेदों का चिंतन
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ध्यान – मौन चित्त से आत्मा का निरीक्षण
🌱 ध्यान से आत्मा और ईश्वर का संबंध
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आत्मा चेतना है, ईश्वर स्रोत है।
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ध्यान आत्मा को अपनी सच्चाई और ईश्वर के नियमों से जोड़ता है।
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ध्यान का उद्देश्य एकत्व नहीं, बल्कि ज्ञान का साम्य है।
“ध्यान आत्मा का ईश्वर से मिलन नहीं, ईश्वर को जानने का मार्ग है।”
"ध्यान का अर्थ किसी छवि में खोना नहीं, आत्मा में जागना है – यही आर्य पथ है।"
"Meditation is not about dissolving into an image, it’s about awakening within – the Arya path."
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🧘♂️ FAQs (प्रश्नोत्तर)
Q1: क्या ध्यान के लिए किसी मंत्र की आवश्यकता है?
उत्तर: नहीं। ध्यान के लिए मुख्य रूप से शुद्ध मन, संयमित जीवन और आत्मचिंतन की आवश्यकता होती है – जैसा कि वेदों और आर्य समाज में बताया गया है।
Q2: क्या ध्यान से ईश्वर का अनुभव होता है?
उत्तर: ध्यान से ईश्वर को समझने की योग्यता बढ़ती है – उसके नियम, उसकी न्याय-प्रणाली, और उसका स्वरूप – भावनाओं से नहीं, ज्ञान से।
📚 Disclaimer:
यह लेख विभिन्न स्रोतों व आर्य समाज साहित्य के अध्ययन पर आधारित है। लेखक न तो धार्मिक गुरु है, न गीता काअंतिम ज्ञाता – उद्देश्य केवल जागरूकता और चिंतन को बढ़ावा देना है।
कल नया अध्याय.....
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