*खोज रहा हूँ मैं, एक बड़ा रिश्ता।*
पद, पैसे, जाति, जन्म, या शिक्षा से नहीं — बस उम्र में बड़ा।
एक ऐसा रिश्ता, जो मुझे संभाले।
मुझसे कोई बड़ा नहीं, कोई मेरे ऊपर नहीं —
यह सोच ही मुझे एकदम अकेला कर देती है।
निस्सहाय, निरुपाय रह जाता हूँ मैं।
कहीं एक अपूर्णता का एहसास खलने लगता है।
मैं खोज रहा हूँ एक ऐसा शख़्स—
जिसने देखा हो मेरा बचपन,
जिसने तरेरी हों आँखें मेरी ग़लतियों पर,
जिसने उमेठें हों कान मेरी शरारतों पर,
जिसने खुले आम कहा हो — "तू ग़लत है!"
मुझे तलाश है उस बड़े, मित्र, रिश्तेदार की —
जो आज भी बेलाग कह दे:
**"तुमने ये ग़लती की थी,
तुमको सुधरना होगा,
नहीं तो तुमको भुगतना होगा।"**
कहाँ हैं वो बड़े, मित्र, रिश्तेदार
जो कह सकें:
*"देख भाई, ग़लती तो तेरी है, अब तू ही सुलझा!"*
मुझे इंतज़ार है उन बड़ों का —
जो मेरी सारी ग़लतियों, कमज़ोरीयों और परेशानियों को समझें,
और कहें:
**"कुछ भी किया है तूने, घबरा मत,
हम तेरे साथ हैं — हमेशा मददगार।
तेरी ज़िंदगी के सुखों-दुखों में हमारा भी तो हाथ है।
हम भी तेरे साथ रहे हैं, और रहेंगे, हमेशा।"**
मेरी तलाश है जारी।
जीवन की चाल भी है जारी।
कोई नहीं जानता —
*जीवन पहले समाप्त होगा या मेरी तलाश।*
पर मैं यह हमेशा कहूँगा कि:
> **खुशकिस्मत हैं वो लोग,
जिनके सर पर एक बेलाग, निस्वार्थ, बुज़ुर्ग हाथ है —
जो कमज़ोर होने के बावजूद भी,
एक ईश्वरीय वरदान हैं।**
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साभार:
यह ब्लॉग पोस्ट श्री सुरेंद्र कुमार जाटव जी द्वारा लिखी गई है। वे भारतीय सिविल सेवा में IRTS अधिकारी रहे हैं और रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल के जज पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। सामाजिक कुरीतियों के प्रखर आलोचक, दो पुस्तकों के लेखक और सामाजिक असमानता के खिलाफ आंदोलनों में सक्रिय योगदानकर्ता हैं। उनके विचार आपको कैसे लगे? कृपया अपने कमेंट्स में साझा करें!
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