श्रीमद्भगवद्गीता हमें सिखाती है कि जीवन में आने वाली परिस्थितियाँ—शीत-उष्ण, सुख-दुख, मान-अपमान, और अनुकूल-प्रतिकूल अवस्थाएँ—सिर्फ हमारे धैर्य और आत्मज्ञान की परीक्षा लेती हैं। जो व्यक्ति इन पर विजय प्राप्त कर लेता है, उसे ईश्वर की साक्षात अनुभूति होती है।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि जो इन द्वंद्वों से ऊपर उठकर समभाव में स्थित रहता है, वही जीवन में सच्ची शांति और ईश्वर की कृपा प्राप्त करता है। आइए इस गीता के संदेश को सरल भाषा में समझें और जानें कि इसे अपने जीवन में कैसे अपनाया जाए।
1. शीत-उष्ण, सुख-दुख और मान-अपमान का प्रभाव क्यों होता है?
हमारा मन बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर करता है। अगर मौसम ठंडा है, तो हम सर्दी महसूस करते हैं; अगर गर्मी है, तो हमें असहजता होती है। इसी तरह, जब हमें सफलता मिलती है, तो हम खुश हो जाते हैं, और जब असफलता मिलती है, तो दुखी हो जाते हैं। जब कोई हमारी प्रशंसा करता है, तो हमें अच्छा लगता है, लेकिन अगर कोई आलोचना करता है, तो हम परेशान हो जाते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता (2.14) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
"मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।"
अर्थात, हे अर्जुन! सर्दी-गर्मी, सुख-दुख, मान-अपमान जैसी अनुभूतियाँ अस्थायी हैं। ये आती और जाती रहती हैं, इसलिए इन्हें सहन करना सीखो।
2. इन द्वंद्वों पर विजय कैसे पाएं?
गीता हमें इन परिस्थितियों को सहन करने और उनसे ऊपर उठने की प्रेरणा देती है। इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण उपाय हैं:
(i) आत्मज्ञान और समभाव
अगर हम यह समझ लें कि सुख-दुख, लाभ-हानि, मान-अपमान जैसी चीजें सिर्फ क्षणिक अनुभव हैं, तो हम इनके प्रभाव से मुक्त हो सकते हैं।
"समत्वं योग उच्यते" (गीता 2.48) – समभाव को ही योग कहा जाता है।
(ii) निष्काम कर्म
भगवान श्रीकृष्ण गीता (2.47) में कहते हैं:
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"
(अर्थात, कर्म करना हमारा अधिकार है, लेकिन फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।)
अगर हम अपने कार्य को पूरी निष्ठा से करें और उसके फल की चिंता छोड़ दें, तो सफलता और असफलता दोनों हमें प्रभावित नहीं करेंगे।
(iii) ध्यान और भक्ति
नियमित ध्यान और भक्ति से मन शांत रहता है। जब मन स्थिर होता है, तो बाहरी परिस्थितियाँ हमें विचलित नहीं कर पातीं। भगवान को पाने के लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। वे हमारे हृदय में ही निवास करते हैं।
गीता (18.61) में श्रीकृष्ण कहते हैं:
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।"
(अर्थात, ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं।)
3. ईश्वर की अनुभूति कैसे होगी?
जब हम सुख-दुख, मान-अपमान और अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों में समान रहते हैं, तो हमारे भीतर आध्यात्मिक जागरूकता विकसित होती है। तब हमें ईश्वर की उपस्थिति का साक्षात अनुभव होने लगता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।"
(अर्थात, जो मुझे हर जगह देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है, मैं उससे कभी दूर नहीं होता।)
इसलिए, अगर हम अपने मन को स्थिर करके, हर परिस्थिति में समभाव में रहें, तो ईश्वर की अनुभूति स्वाभाविक रूप से होगी। हमें कहीं जाने की जरूरत नहीं होगी—भगवान स्वयं हमें अपनी उपस्थिति का एहसास करा देंगे।
निष्कर्ष
श्रीमद्भगवद्गीता हमें सिखाती है कि हमारे जीवन की परिस्थितियाँ अस्थायी हैं और हमें इनसे ऊपर उठना चाहिए। जब हम शीत-उष्ण, सुख-दुख, मान-अपमान और अनुकूल-प्रतिकूल अवस्थाओं से प्रभावित नहीं होते, तो हमारे मन में शांति, स्थिरता और ईश्वर की अनुभूति होती है।
इसलिए, हर परिस्थिति को ईश्वर की इच्छा मानकर, कर्मयोग और भक्ति योग का पालन करें। तब जीवन में सच्ची शांति और आध्यात्मिक आनंद प्राप्त होगा।
