"क्रांतिकारी दुर्गावती बोहरा (दुर्गा भाभी) का इतिहास: स्वतंत्रता संग्राम की नायिका को क्यों नहीं मिला सम्मान?"
दुर्गा भाभी: एक भूली हुई नायिका जिनकी गूंज इतिहास में रह गई अधूरी
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई महान पुरुषों के नाम दर्ज हैं, जैसे भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु आदि, लेकिन इनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली नायिकाओं का ज़िक्र बहुत कम किया जाता है। इन्हीं में से एक नाम है — दुर्गावती बोहरा, जिन्हें इतिहास में दुर्गा भाभी के नाम से जाना जाता है।
दुर्गावती बोहरा का प्रारंभिक जीवन और विवाह
दुर्गावती बोहरा का जन्म 7 अक्टूबर 1902 को उत्तर प्रदेश के कौशाम्बी जिले के शहजादपुर गांव में हुआ। मात्र दस वर्ष की उम्र में उनका विवाह लाहौर निवासी भगवती चरण बोहरा से हुआ। उनके ससुर ब्रिटिश राज में रेलवे के उच्च पद पर कार्यरत थे और उन्हें "राय साहब" की उपाधि प्राप्त थी।
लेकिन उनके पति भगवती चरण बोहरा का झुकाव क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर था। उनके मन में अंग्रेजी दासता से देश को मुक्त कराने का संकल्प था। 1920 में पिता की मृत्यु के बाद, दोनों पति-पत्नी ने खुले रूप से क्रांतिकारी आंदोलनों का समर्थन करना शुरू कर दिया।
एक वीरांगना की असाधारण क्रांतिकारी यात्रा
दुर्गा भाभी का योगदान सिर्फ सीमित नहीं था, वे हथियार पहुंचाने, गुप्त संदेशों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने और रणनीति बनाने में भी सक्रिय थीं। वे भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त जैसे महान क्रांतिकारियों के साथ कार्य करती थीं।
बम परीक्षण में पति की शहादत
28 मई 1930 को रावी नदी के किनारे बम परीक्षण के दौरान भगवती चरण बोहरा शहीद हो गए। इस हादसे के बाद दुर्गा भाभी और भी ज़्यादा सक्रिय हो गईं।
ब्रिटिश अधिकारियों पर साहसी हमले
9 अक्टूबर 1930 को दुर्गा भाभी ने तत्कालीन गवर्नर हैली पर गोली चलाई, हालांकि वह बच गया। इसके बाद उन्होंने मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी गोली मारी, जिससे ब्रिटिश पुलिस उनके पीछे लग गई और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
जेल और नजरबंदी के बाद का जीवन
गिरफ्तारी के बाद दुर्गा भाभी को तीन वर्षों तक नजरबंद रखा गया। इसके बाद उन्होंने अपने बेटे शचींद्र की शिक्षा के लिए दिल्ली और फिर लाहौर का रुख किया। 1935 में वे गाजियाबाद आईं और अध्यापन के क्षेत्र में काम करने लगीं।
दुर्गा भाभी को क्यों नहीं मिला सम्मान?
स्वतंत्रता के बाद जहां कई नेताओं को भारत सरकार द्वारा सम्मानित किया गया, वहीं दुर्गा भाभी जैसी वीरांगना को अपेक्षित मान-सम्मान नहीं मिला।
विशेषज्ञों का मानना है कि स्त्रियों के योगदान को अक्सर इतिहास के पन्नों में दरकिनार कर दिया गया। इतिहासकार डॉ. मृणाल पांडे कहती हैं —
"अगर दुर्गा भाभी पुरुष होतीं तो आज उनकी प्रतिमाएं हर चौक पर होतीं।"
इतिहासकारों और शोधकर्ताओं के अनुसार, महिलाओं की भूमिका को जानबूझकर कम आंका गया, खासकर जब वे हथियारबंद संघर्ष में शामिल थीं।
समाज और शिक्षा में योगदान
जेल से रिहा होने के बाद दुर्गा भाभी ने कई विद्यालयों में शिक्षिका के रूप में कार्य किया। उन्होंने महिला शिक्षा और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दिया। 14 अक्टूबर 1999 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
क्या हमें दुर्गा भाभी को सम्मान नहीं देना चाहिए?
दुर्गा भाभी जैसे साहसी क्रांतिकारियों को सम्मान देना, सिर्फ इतिहास को सही करना नहीं है बल्कि आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देना भी है।
सुझाव:
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NCERT की पुस्तकों में दुर्गा भाभी जैसे पात्रों को शामिल किया जाए।
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उनके नाम पर सार्वजनिक स्थल, सड़कें या संस्थाएं बनाई जाएं।
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डॉक्यूमेंट्री और फिल्में बनाई जाएं ताकि उनकी कहानी जन-जन तक पहुंचे।
निष्कर्ष:
दुर्गा भाभी सिर्फ एक क्रांतिकारी नहीं थीं, वे महिला सशक्तिकरण की जीती-जागती मिसाल थीं। उनके साहस, बलिदान और समर्पण को वह स्थान मिलना चाहिए जो उन्हें आज़ादी के बाद मिलना चाहिए था।
साभार:
श्री सरदारी लाल धीमान: सेवानिवृत्त वरिष्ठ बैंक प्रबंधक, निवेश सलाहकार, महासचिव – वर्दान वेलफेयर सोसाइटी, पंचकूला-एक परोपकारी संस्था जो पिछले 7 वर्षों से लोगों की सेवा कर रही है ।
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